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प्लीज़ हमे हमारी अज़ादारी लौटा दीजिए। मत कीजिए जदीद बेहुरमती।

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प्लीज़ हमे हमारी अज़ादारी लौटा दीजिए। अज़ादारी ए ईमाम हुसैन अस किसी तार्रुफ़ या किसी जदीद तरीक़े की मोहताज नही है। ईमाम हुसैन अस का ग़म एक ऐसा ग़म है जिसे किसी जदीद तरीक़े से महसूस करने की ज़रूरत नही है। क्या होगया है हमे आपको, किस दौड़ में शामिल होरहे हैं हम ? कहाँ है अब वो रौनक ए अज़ा ?  कहाँ है वो बुज़ुर्गों का ताबरुक़ात जो हमे अज़ादारी की शक्ल में मिला था ? आज जिस तरह से अज़ादारी होरही है क्या उस अज़ादारी से हम ईमाम अस को पुरसा दे रहे हैं या उनके नाम पर इवेंट कर रहे हैं। काली ईद के नाम से मशहूर कर दिया है मुहर्रम को, मुहर्रम शुरू होते ही कपड़ों की खरीदारी ख़ुद की सजावट शुरू होजाती है। जदीद जदीद तरीक़े ईजाद होरहे हैं। कोई थ्री डी ज़ुल्जनह ला रहा कोई सौ फीट का अलम उठा रहा है किसी को ताज़िया डिजाइनिंग वाला चाहिए कोई मातम की कोरियोग्राफी करवा रहा है कोई VR (वर्चुअल रियलिटी) पर ईमाम हुसैन अस का दर्द महसूस करवा रहा है। शबबेदारी के नाम पर बेदार करने की जगह महफ़िल सजाई जा रही है। वक़्त की पाबंदी का ख़्याल नही है ना ही अज़ादारी का ख़्याल है। नक़्शेबाज़ी की जा रही है एक्टिंग की जा रही है नौहे को नौहे की...