शुक्र है इस बार "मुहर्रम" नही होगा अज़ादारी होगी

हर साल मुहर्रम होता था इस बार इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की अज़ादारी होगी । इसबार रियाकारी और मक्कारी नही अज़ादारी होगी । इतिहास ख़ुद को दोहराता है जैसे पहले ख़ुलूस ए दिल से कम लोगो के दरमियान बिना लाउड स्पीकर बिना "नेताओ"  के अज़ादारी होती थी वो अज़ादारी होगी । हाँ हम मुहर्रम मना रहे थे अज़ादारी नही कर रहे थे । मुहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना है हम भी नए लिबास नए औतार में मुँह में गुटखा पान रख कर लड़कियों के सामने अपने रुतबे की नुमाईश करना हँसी ठहाका लगाना मजलिसों मे ना बैठ कर बाहर महफ़िल सजाना अंजुमन बाज़ी गुट बाज़ी रियाकारी हसद,झूठ,किना,ज़िना सबको आम कर देने वाला मुहर्रम नही होगा इस बार अज़ादारी ए इमाम हुसैन होगी । गिरियाँ ओ ज़ारी होगी ख़ुलूस ए दिल से नौहा मातम मजलिस होगी कोई दिखावा नही होगा किसी की जी हुज़ूरी नही होगी शबबेदारियों के नाम पर सियासती हुजूम नही होगा मंच नही सजेगा राजनीति आक़ा नही आयेंगे ख़र्चा नही चलेगा चंदा नही मिलेगा । लोगो को इमाम हुसैन की अज़ादारी का ग़म नही है इन तमाम चीज़ों के बंद होजाने का ग़म है । आप किसी जुलूस में किसी मौलवी मौलाना को नही देखेंगे पर वो आपको 2 महीना 8 दिन चिल्ला चिल्ला कर जुलूस में आने को कहेंगे मजलिस में आने को कहेंगे उन्हें इससे नही मतलब दीन की बुनियाद इल्म है बच्चे इल्म हासिल करें ज़रूरी मजलिस और जुलूस करें पर हमारे दिलों दिमाग़ में बचपन से ही इतना भर दिया जाता है कि पूरे 2 महीना ना हम काम पर जाना चाहते है ना स्कूल कॉलेज जाना चाहते हैं ना पढ़ना चाहते है बस मौलवी मौलानाओं का सियासती ख़ुत्बा सुनने उन्हें क़ौम का आक़ा मौला मानने को मजलिस में बुलाते हैं । मजलिस का आगाज़ अपने अज़ीज़ नेता और उनकी पार्टी से किया जाता है मिम्बर ए रसूल saww की अज़मत को पामाल किया जाता है । अपना बुग्ज़ मिम्बरों पर से निकाला जाता है एक दूसरे की ग़ीबत चुगली मिम्बरों से होती है । इल्मी गुफ़्तगू का नाम ओ निशान नही क़ौम के नौजवानों के मुस्तक़बिल का ख़्याल नही किसी पर बनना है क़ौम का आक़ा । सियासतदानों के आगे झुक कर उनकी जी हुज़ूरी करना एक दूसरे को ख़ुश करने के लिए अल्लाह को नाराज़ करना दीं के मुख़ालिफ़ को भी मिम्बर पर बैठाना उन्हें रोज़े इमामबाड़े की सैर करवाना । ग़ुस्ल ओ तहारत के बिना पाकीज़ा मोकद्दस जगहों की बेहुरमती करना क़ौम में इत्तेलाफ़ पैदा करना । हर मौलवी मौलाना अपना अलग गुट बना कर चलता है एक दूसरे पर लानत मलानत करता है पर मुहर्रम आते ही क़ौम का हमदर्द बन जाता है । 
माहे रमज़ान में यही मौलवी मौलाना हमे मस्जिदों मे जाने से रोकते थे नमाज़ पढ़ाने से मना करते थे हमारे क़ौमी फतवों इमाम रसूल का वास्ता देते थे । हर शिया किसी ना किसी की तक़लीद करता है उसी तक़लीद के मुताल्लिक़ फ़तवा क़ुबूल करता है । अयातुल्लाह उल उज़्मा हज़रत सैय्यद अली अल सिस्तानी साहब जो कि इराक़ से सबसे बड़े शिया आलिम है और हर शिया जो भी सिस्तानी साहब की तक़लीद में है वो उनके फतवों पर अमल करता है । माहे रमज़ान मे सिस्तानी साहब का फ़तवा आया आप भीड़ ना लागये बाजमात नमाज़ ना पढ़े आप जिस मुल्क़ में रहते है उस सरकार की और डॉक्टर की गाइडलाइंस पर अमल करें वो जैसा कहते हैं वैसा करें जान बचाना लाज़िम है । यही ईमाम ज़ैनुलआब्दीन अलैहिस्सलाम ने भी फ़रमाया था जान बचाना लाज़िम है । अब उन मौलवी मौलानाओं से मेरा सवाल है क्या सिस्तानी साहब के फ़तवे बदल गए ?
क्या उनके अल्फ़ाज़ बदल गए ?
क्या उनकी अहमियत कम होगयी ?
क्या फ़तवा वक़्ती था ?
नमाज़ की अहमियत ज़्यादा है या अज़ादारी की ?
ईमाम हुसैन ने किसी रोज़े इमामबाड़े को बचाने के लिए क़ुरबानी नही दी थी ईमाम हुसैन ने नमाज़ रोज़ा और दीनी वाजिबात को बचाने के लिए क़ुर्बानी दी थी । कल तक आप नमाज़ पढ़ने से मना कर रहे थे आज जुलूस और मजलिस ओ मातम के लिए आप सरकार के दर पर खड़े होगए ? क्या माहे रमज़ान की अहमियत मुहर्रम से कम है ? आप इतने साल से मुहर्रम की अज़मतो को पामाल होते हुए देखते रहे नई नई तब्दीलियाँ होती रही बेहुरमती होती रही तब आप आगे नही आए आज आपको बहुत फ़िक़्र है । ये अज़ा ए हुसैन की फ़िक़्र नही है आपको अपने मुस्तक़बिल और आक़ाओं की खुशामद की फ़िक़्र है । अल्लाह सब देखता है उसे तो बस "कुन" कहना है और सारे काम होजाएंगे पर अल्लाह भी जानता है एक यज़ीद के मरने से कुछ नही होगा ऐसे कितने यज़ीद मौजूद है जो ख़ुद को ईमाम का मोहिब ओ जानशीन बताते है पर काम यज़ीद वाला करते हैं । मनगढ़ंत हदीस, मसाएब ओ फ़ज़ायल पढ़ना ये भी दीनी तब्दीली है जो आज के मौलवी मौलाना कर रहे हैं वक़्त रहते तौबा कर लेना चाहिए ।
इमाम ज़ैनुलआब्दीन अलैहिस्सलाम के सामने एक मोहिब आया और फ़रमाया मौला इस बार आपके शियों (चाहने वालों) की क़सीर तादात है । ईमाम ने दो उंगलियों के दरमियान जो मंज़र दिखाया मौला का मोहिब वो देख कर कांप गया । उस क़सीर तादात में चंद अफ़राद ही इंसान की शक़्ल में नज़र आए बाक़ी सब भेड़ बकरी और जानवरों की शक़्ल में । ईमाम ने ईशारा पहले ही दे दिया था हमे समझने में वक़्त लगा ये जो जानवरों की शक़्ल वाले मोहिब थे ये हम आप जैसे ही थे । 
और जो लोग कहते है ताज़िया दफ़न नही होगा तो ये करेंगे वो करेंगे । अरे भाई आपकी या मेरी क्या औक़ात तारीख़ उठा के देखिए । कर्बला के बेगौरों कफ़न जनाज़े को ईमाम हुसैन के फ़रज़न्द इमाम ज़ैनुलआब्दीन ने बा एजाज़ आकर दफ़न किया था । जब उस वक़्त कोई नही रोक पाया जब पाँव में बेड़ी गले में तौक़ हाथ में हतकड़ी थी । ग़म से चूर थे मजबूर थे पर ईमाम का जनाज़ा कैसे बेगौरों कफ़न बिना दफ़न हुवे रहता उसे तो दफ़न हर हाल में होना था । आप कहते हो अल्लाह की मर्ज़ी के बिना एक पत्ता नही हिलता फिर ये कैसे सोच लिया इस बार मुहर्रम नही होगा । बेशक़ मुहर्रम नही होगा पर अज़ादारी ए ईमाम हुसैन ज़रूर होगी ।

मरहूम उस्ताद सिब्ते जाफ़र साहब का एक कलाम और बात ख़त्म

दावा ए मोहब्बत वो सुबह ओ शाम करते हैं
उनके दुश्मनों से भी राहो रस्म रखते हैं
ख़ुम्स भी नही देते ग़ीबते भी करते हैं
हर मुनाफ़ाक़त को बड़ा आदमी समझते हैं 
कैसे मुँह दिखाएंगे जब ईमाम आयेंगे ।

शुक्रिया वा मज़रत अगर किसी को मेरी बात बुरी लगी हो 🙏

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