प्लीज़ हमे हमारी अज़ादारी लौटा दीजिए। मत कीजिए जदीद बेहुरमती।

प्लीज़ हमे हमारी अज़ादारी लौटा दीजिए।

अज़ादारी ए ईमाम हुसैन अस किसी तार्रुफ़ या किसी जदीद तरीक़े की मोहताज नही है।

ईमाम हुसैन अस का ग़म एक ऐसा ग़म है जिसे किसी जदीद तरीक़े से महसूस करने की ज़रूरत नही है।

क्या होगया है हमे आपको, किस दौड़ में शामिल होरहे हैं हम ?

कहाँ है अब वो रौनक ए अज़ा ?  कहाँ है वो बुज़ुर्गों का ताबरुक़ात जो हमे अज़ादारी की शक्ल में मिला था ?

आज जिस तरह से अज़ादारी होरही है क्या उस अज़ादारी से हम ईमाम अस को पुरसा दे रहे हैं या उनके नाम पर इवेंट कर रहे हैं।
काली ईद के नाम से मशहूर कर दिया है मुहर्रम को, मुहर्रम शुरू होते ही कपड़ों की खरीदारी ख़ुद की सजावट शुरू होजाती है। जदीद जदीद तरीक़े ईजाद होरहे हैं। कोई थ्री डी ज़ुल्जनह ला रहा कोई सौ फीट का अलम उठा रहा है किसी को ताज़िया डिजाइनिंग वाला चाहिए कोई मातम की कोरियोग्राफी करवा रहा है कोई VR (वर्चुअल रियलिटी) पर ईमाम हुसैन अस का दर्द महसूस करवा रहा है। शबबेदारी के नाम पर बेदार करने की जगह महफ़िल सजाई जा रही है। वक़्त की पाबंदी का ख़्याल नही है ना ही अज़ादारी का ख़्याल है। नक़्शेबाज़ी की जा रही है एक्टिंग की जा रही है नौहे को नौहे की तरह सादगी से नही मोहम्मद रफ़ी बनके सातों सुर में पढ़ा जा रहा है। 
ना नमाज़ का ख़्याल है ना तहज़ीब ओ तमीज़ का, ना बड़े का लिहाज है ना छोटे के शरीक़ का। गाली दी जा रही है गुटखा खाया जा रहा है और नौहेख़्वानी, सोज़ख़्वानी की जा रही है। ज़ाकिर जदीद मसाएब बयान कर रहे हैं। हद तो ये है की क़ातिल को भी मज़लूम बना देते हैं अपनी मजलिसों से "किसी ज़ाकिर ने पढ़ा जब शहज़ादी सकीना स.अ ज़िन्दान ए शाम की जानिब बढ़ी इस क़दर अंधेरा था कि शिम्र भी रोने लगा,अए शिम्र तुझे क्या हुआ जो तू आज रोने लगा, मौला मुझसे आपका दर्द देखा नही जाता"। इस तरह से मजलिस ज़ाकिर पढ़ते हैं कि यज़ीद से लेकर तमाम क़ातिल को मज़लूम दिखा देते हैं आपने भी सुना होगा बहुत ज़ाकिर से की यज़ीद ने जब सैय्यद ए सज्जाद अस को बुलाया और कहा हम आपको रिहाई देते हैं आपका मन आप चाहे यहां रहे या मदीने चले जाएं, बताएं हम आपके लिए क्या कर सकते हैं ? फिर ज़िन्दान ए शाम में ही मजलिस हुई गिरिया किया पुरसा दिया। यज़ीद ने बा इज़्ज़त रिहा किया। हसीन इब्ने नुमैर को, शिम्र,उमर इब्ने साद को यज़ीद उबैदुल्लाह इब्ने ज़्याद को ये ज़ाकिर ओ ख़तीब मज़लूम बना देते हैं। अरे कम्बख़्तों अगर उसके सीने में रहम और मज़लूमियत होती तो वो औलाद ए रसूल स.अ पर ज़ुल्म क्यों करते ? क्या साबित करना चाहते हो आप लोग ऐसी मजलिस पढ़ के ? बनी उमैय्या की गढ़ी रवायत को पढ़ रहे हो आपको इतना भी इल्म नही इतनी भी अक़्ल नही की जो जानवर से भी बदतर हो वो ऐसा करेगा ? रिहाई इंक़लाब ए अहलेबैत अस से मिली उनकी क़ुर्बानी और हक़्क़ानी से मिली। जब हक़ीक़त आशना हुई तो लोगों ने तख़्त से बेदख़ल किया। लोगों ने आज़ाद किया ना कि उन मलऊन क़ातिल ए आले रसूल ने।

देखो हमारे बुज़ुर्गों की अज़ादारी को सादगी और ख़ुलूस को। ना इतनी चमक धमक दी ना इस क़दर रोशनी होती थी। अंधेरा एक हल्की सी रोशनी कम लोग ज़्यादा ख़ुलूस। मातम घंटो नही करते थे अन्जुमन घंटो नही लगाते थे। पुरसा दे ख़ुलूस से और जब लगे अब पुरसे का हक़ अदा होगया तो अन्जुमन तमाम कर देते थे। आज की अन्जुमन की तरह ये नही देखते थे कि मजमा कहा है वहां ख़त्म करेंगे चाहे अपनी क़ुव्वत जवाब दे जाए लेकिन जहां मजमा होगा उसी जगह मातम करेंगे नौहा पढ़ेंगे। ख़ुलूस तो तब है जब आपको सिवाए ख़ुदा के कोई ना देखे और आप अज़ादारी का हक़ अदा करें। 

अब अन्जुमन और ज़ाकिर पहले पूछते हैं मजमा होता है ? भीड़ होती है ? अगर हाँ तो आएंगे वरना ख़ुदा हाफ़िज़, क्या करेंगे जाकर जहां कोई सुनने वाला ना हो ? एक तरफ आप पढ़ते हैं फ़रशे अज़ा पर शहज़ादी फ़ातिमा ज़हरा स.अ, मौला सज्जाद और दीगर आइमे मासूमीन अस तशरीफ़ लाते हैं और दूसरी तरफ आप कहते हैं मजमा नही है भीड़ नही है कौन सुनेगा ? आपको दुनिया को सुनाना है या मासूमीन अस को, आपको दुनिया को राज़ी करना है या ख़ुदा को ?

ना अब मजलिस का ख़ुलूस है ना मातम का, सारा ख़ुलूस ख़्वातीन को ख़ुश करने लोगों को ख़ुश करने का है।
अब बड़े बड़े ख़तीब की पीआर एजेंसी है जो उनकी मार्केटिंग करती है। एक रूम बना है उसमें ग्राफिक्स डिज़ाइनर,कैमरामैन, एडिटर, कुछ बुक्स मिम्बर और उनके लोग बैठे हैं फिर सोशल मीडिया के हिसाब से क्लिप जारी की जाती है। लाखों करोड़ों खर्च होरहा है ख़ुद की ब्रांडिंग और प्रोमोशन पर फिर कहते हैं हम मौला के ज़ाकिर हैं। हमे कुछ नही चाहिए, लेकिन कहीं आने से पहले हदिया तय होता है,दस्तरख़्वान पर आने वाला खाना तय होता है। होटल एसी वाला होगा या नॉन एसी वाला होगा। गाड़ी कौन सी होगी प्रोटोकॉल कैसा रहेगा। जब मजलिस पढ़े तो किस किस एंगल से फ़ोटो और वीडियो क्लिप जारी होगी। कॉमर्शियलिज़्म बना दिया है अज़ादारी को। वो ज़ाकिर अलग होते थे जिनकी मजलिस से इंक़लाब बरपा होता था लोग बेदार होते थे। क्योंकि उनमें ख़ुलूस था ख़ौफ़ ए ख़ुदा था। अब तो बस सब पैसे कमाने और नाम बनाने का ज़रिया बन चुका है।

स्टाइलिश मातम, स्टाइलिश अज़ादार, नौहेख़्वानी में एक्शन, गानों की धुन पर मातम, रोशनी से चकाचौंध स्टेज, जुलूस कम किसी कॉन्सर्ट इवेंट बना दिया है। मोबाइल के कैमरे और फ़्लैश लाइट, ना मसाएब का इल्म ना एहतराम ए अज़ा।

ना मेहरम के बीच में घुसती औरतें, ऑनलाइन मजलिस ओ मातम को सुनना देखना,लोग कहते हैं क्या होगा जाकर लाइव देख लेंगे। फ़रशे अज़ा की अहमियत ख़त्म होगयी। पहले लोग फ़रशे अज़ा पर बैठते थे तो उन्हें एहसास होता था, अब फ़रशे अज़ा, हमारा मोबाइल होगया है।
ईमाम अस का ग़म दूरबीन से देखा जारहा है थ्री डी पर, ये देखा जारहा है कैसे ख़ैमे जले, कैसे शहीद हुवे। ये देख कर हम साबित क्या करना चाहते हैं ? जिस नूरानी शख़्सियत के चेहरे का भी तसव्वुर गुनाह लगता है उनका एनीमेशन बना दिया गया। 

आज हमारे बुज़ुर्ग रो रहे होंगे। जिस अज़ादारी का तबर्रुक़ात वो हमें देकर गएं है वो अल्लाह से रो रोकर फरियाद कर रहे होंगे कि हमारी अज़ादारी हमे लौटा दें। ना करें ऐसी अज़ादारी जो मज़ाक बना दें। जो इमाम हुसैन के ग़म को अपनी अना का ज़रिया बना दें। तमाम दुश्मनी, हसद जलन और आपसी शोहरत, ग़ुरूर तकब्बुर, अना का जरिया अज़ादारी को बना दिया गया है। ये अन्जुमन ना लगे वो अन्जुमन ना लगे। जिसके पास मजलिस मातम जुलूस या शबबेदारी नही है वो बस इस वजह से क़ायम कर देता है कि फलां अन्जुमन ने मुझे नही बुलाया था उसे नही बुलाना है। कंपीटिशन बना कर रख दिया है अज़ादारी को। ना अब पहले जैसा ख़ुलूस है ना वो रौनक ए अज़ा है। बस अपने नाम और शोहरत के लिए अपनी ज़ाती दुश्मनी के लिए हम अपनी ख़ानदानी रस्म अदायगी को अंजाम दे रहे हैं।

ऐसी अज़ादारी करने से बेहतर है मत करें आप, कोई ज़रूरत नही है चौबीस घंटे शबबेदारी करने की, बहत्तर शोहदा का ताबूत निकलने की, दस बीस दिन की मजलिस करने की, ज़ंजीर और कमा करने की। नही ज़रूरत है उन ज़ाकिर की जो ईमाम के फ़ज़ायल और मसाएब कम अपने अपने आक़ाओं का ज़िक्र ज़्यादा बयान करें।

आज हमारे बुज़ुर्गों की रूह तड़प रही होगी हमे देख और यही कह रही होगी प्लीज़ हमारी अज़ादारी हमे लौटा दो। ईमाम अस का ग़म किसी का मोहताज नही है वो ता क़यामत तक होता रहेगा लेकिन जो उनके नाम पर कॉमर्शियल अज़ादारी बनाई जा रही है जदीद तरीक़े से अज़ादारी हो रही है वो मंज़ूर नही है। उससे अच्छा है आप ना करें। मौला का ज़िक्र रुकेगा नही। आपके करने से और बेहुरमती ही होरही है, आप अज़ादारी की अहमियत और पैग़ाम को ख़त्म कर रहे हैं।


आदिल ज़ैदी काविश

Comments

  1. बहोत ज़बरदस्त लिखा है भाई

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  2. Bilkul Durust farmaye gouro fikr ka maqam h

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  3. Rikkat khtm ho rhi h Azadari m makkari k wjh se

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  4. Kya kahne Umda Jiye salamat Rahe

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  5. Mere maloom maula kal bhi mazloom the gairo me aur aaj apni ummat me 😭😭😭😭😭

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