खून से लिखी यहूदियों की दास्तान (द किलर ऑफ इनोसेंट,होलोकॉस्ट विलेन हिटलर या यहूदी ?)
इस्राइल ने फिलिस्तीन पर लगातार हमले किए, फिलिस्तीन के मज़लूम बेगुनाह लोगों की, जाने ली उसकी जवाबदेही मे फिलिस्तीन की ग़ाज़ा पट्टी का संगठन हरक़त-अल-मुक़वामा-अल इस्लामिया (हमास) ने 6 अक्टूबर 2023 को इस्राइल पर हमला कर दिया। इस्राइल ने भी फिर हमला किया जो अभी तक जारी है। फिलिस्तीन पूरी तरह तबाह और बर्बाद होगया, जो ज़िन्दा बचे लोग थे वो राफ़ाह शहर में शरण लेकर रह रहे थे जिसमें ज़्यादातर बच्चे थे। 26 मई 2024 को बेंजामिन नेतन्याहू के नेतृत्व वाली इस्राइली सरकार ने राफ़ाह पर बमबारी कर दी जिमसें सौ से अधिक बच्चे ज़िन्दा जल गए।
क्या बेंजामिन नेतन्याहू ख़ुद को हिटलर साबित करना चाहता है। ?
अगर इतिहास के झरोखों मे देखे तो हिटलर ने जो कुछ 1933-1944 तक यहूदियों के साथ किया बेंजामिन नेतन्याहू के नेतृत्व वाली इस्राइल सरकार वही कृत दोहरा रही है।
जो नरसंहार हिटलर और नाज़ी सेना ने किया था वही नरसंहार इस्राइल फिलिस्तीनीयों के साथ कर रही है।
हिटलर ने क्या किया था संक्षेप में समझते हैं।
30 जनवरी 1933 को हिटलर को जर्मनी का चांसलर बना दिया गया। हिटलर का मानना था यहूदी जर्मन नागरिकों और श्रमिकों के दुश्मन है, समाजवाद के दुश्मन है। यहूदी का व्यापारी वर्ग नाज़ी पार्टी और जर्मन के लोगों के लिए अलग धारणा रखता है। 1933 में लगभग 500,000 जर्मन यहूदी देश की आबादी का 1 प्रतिशत से भी कम थे। वे अन्य जर्मनों की तुलना में
औसतन अमीर थे और बड़े पैमाने पर आत्मसात हुए थे,
हालांकि अल्पसंख्यक पूर्वी यूरोप से हाल ही में आए अप्रवासी थे।
विभिन्न जर्मन सरकारी एजेंसियों, नाजी पार्टी
संगठनों और स्थानीय अधिकारियों ने लगभग 1,500 यहूदी विरोधी कानून बनाए । 1933 में, यहूदियों को कई व्यवसायों और सिविल सेवा से प्रतिबंधित या प्रतिबंधित कर दिया गया था ।
1934 के अंत तक जर्मन यहूदियों को सार्वजनिक जीवन से बाहर करने के बाद, शासन ने 1935 में नूर्नबर्ग कानून पारित किया। जर्मन कानूनों ने "जर्मन या संबंधित रक्त" के लोगों के लिए पूर्ण नागरिकता अधिकार आरक्षित किए, यहूदियों की आर्थिक गतिविधि को प्रतिबंधित किया,आंशिक रूप से यहूदी मूल के कई लोगों को अलग-अलग अधिकारों के साथ मिशलिंगे के रूप में वर्गीकृत किया गया था। शासन ने यहूदियों को देश से अंततः गायब करने के उद्देश्य से उन्हें अलग करने की भी कोशिश की यहूदी छात्रों को धीरे-धीरे स्कूल प्रणाली से बाहर कर दिया गया। कुछ नगर पालिकाओं ने यहूदियों को रहने या व्यवसाय करने की अनुमति देने के लिए प्रतिबंध किए। 1938 और 1939 में, यहूदियों को अतिरिक्त व्यवसायों से रोक दिया गया।
नूनबर्ग कानून के बाद क्या हुआ ?
बहस है कि कब यहूदी-विरोध हिटलर की सबसे गहरी और मजबूत धारणा बन गई । 1919 की शुरुआत में ही उन्होंने लिखा, "तर्कसंगत यहूदी-विरोध को व्यवस्थित कानूनी विरोध की ओर ले जाना चाहिए। इसका अंतिम उद्देश्य यहूदियों को पूरी तरह से हटाना होना चाहिए।" मीन काम्फ में, उन्होंने यहूदियों को "संस्कृति का नाश करने वाला", "राष्ट्र के भीतर एक परजीवी" और "एक खतरा" के रूप में वर्णित किया।
9 नवंबर 1938 की शाम को, सावधानीपूर्वक योजनाबद्ध यहूदी विरोधी हिंसा पूरे रीच में "भड़क उठी" , जिसमें मार्च से ऑस्ट्रिया भी शामिल हो गया था । अगले 48 घंटों में दंगाइयों ने 1,000 से अधिक सभास्थलों को जला दिया या क्षतिग्रस्त कर दिया और 7,500 से अधिक व्यवसायों में तोड़फोड़ की और उनकी खिड़कियां तोड़ दीं। 16 से 60 वर्ष की आयु के कुछ 30,000 यहूदी पुरुषों को गिरफ्तार किया गया और उन्हें एकाग्रता शिविरों में भेज दिया गया। पुलिस मूकदर्शक बनी रही, क्योंकि हिंसा-अक्सर अजनबियों की नहीं, पड़ोसियों की कार्रवाई थी-हुई। अग्निशमन कर्मी सभास्थलों की सुरक्षा के लिए नहीं, बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए मौजूद थे कि लपटें आस-पास की "आर्यन" संपत्ति तक न फैलें। इस नरसंहार को एक विचित्र नाम दिया गया: क्रिस्टलनच।
इस्राइल कैसे अस्तित्व में आया ?
ब्रिटिश सरकार ने पहले यहूदियों को फिलिस्तीन मे शरण लेने की अनुमति प्रदान की, फिलिस्तीनियों ने ब्रिटिश सरकार के विशेष आग्रह पर शरण देने की अनुमति प्रदान कर दी, सभी देशों ने यहूदियों को शरण देने से मना कर दिया था ये कहकर की ये हमारे देश और हमारी संस्कृति के लिए ख़तरा पैदा करेंगे। फिलिस्तीन ने सोचा इन बेचारे भूखे नंगो को कोई शरण नही देता लाओ शरण दे दें, क्या ही पता था कि ये आस्तीन के सांप हैं, जैसे-जैसे यहूदी बस्ती मजबूत होती गई और फिलिस्तीन में अपनी जड़ें गहरी करती गई, फिलिस्तीनी अरबों में चिंता बढ़ती गई, जिसके परिणामस्वरूप दोनों समुदायों के बीच हिंसक झड़पें हुईं। 1939 में ब्रिटेन ने अपनी मध्य पूर्व नीति बदल दी, यहूदियों के प्रति अपना सहानुभूतिपूर्ण रुख त्याग दिया और अरबों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाया, जिसके कारण फिलिस्तीन में यहूदियों के प्रवास और बसने पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए गए। बेन- गुरियन ने यहूदी समुदाय से इंग्लैंड के खिलाफ उठ खड़े होने का आह्वान करके प्रतिक्रिया व्यक्त की, इस प्रकार "ज़ायोनीवाद से लड़ने" के दशक की शुरुआत की। 12 मई, 1942 को, उन्होंने न्यूयॉर्क शहर में अमेरिकी ज़ायोनीवादियों का एक आपातकालीन सम्मेलन बुलाया; सम्मेलन ने युद्ध के बाद फिलिस्तीन में एक यहूदी राष्ट्रमंडल की स्थापना का निर्णय लिया। द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में, बेन-गुरियन ने फिर से ब्रिटिश शासनादेश के खिलाफ अपने सफल संघर्ष में यहूदी समुदाय का नेतृत्व किया; और मई 1948 में, संयुक्त राष्ट्र महासभा के एक निर्णय के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के समर्थन से, इज़राइल राज्य की स्थापना की गई।
प्रथम विश्व युद्ध के अंतिम चरण में, ब्रिटिश ने मध्य पूर्व में तुर्की शासन को हटा दिया; और इस परिवर्तन के साथ यहूदी बसने वालों और उनके मित्रों और विदेश में समर्थकों को यह एहसास होने लगा कि ज़ायोनीवाद भविष्य में सहायता के लिए ब्रिटेन के साथ-साथ अमेरिकी यहूदियों के धनी और प्रभावशाली वर्गों पर भरोसा कर सकता है। 2 नवंबर, 1917 को ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रकाशित किए जाने के बाद, बाल्फोर घोषणापत्र, जिसमें यहूदियों को फिलिस्तीन में एक “राष्ट्रीय घर” देने का वादा किया गया था, के समर्थन में, बेन-गुरियन ने ब्रिटिश सेना की यहूदी सेना में भर्ती हुए और ओटोमन शासन से फिलिस्तीन की मुक्ति के लिए युद्ध में शामिल होने के लिए मध्य पूर्व की ओर रवाना हुए।
जब यहूदी सेना युद्ध के मैदान में पहुँची, तब तक ब्रिटिश तुर्कों को हरा चुके थे, और जब ब्रिटेन को फिलिस्तीन पर शासनादेश मिला, तो "यहूदी राष्ट्रीय घर" को साकार करने का काम शुरू हो गया था।
होलोकॉस्ट क्या है ?
1938-1944 प्रथम विश्व युद्ध में जर्मन की पराजय के बाद हिटलर ने इस हार का दोषी यहूदियों को माना और उनके ख़िलाफ़ कई कानून बनाए, सामुहिक नरसंहार किया जिसे जर्मन वासियों ने "हर्बन" या शोआह (विपत्ति,विनाश) कहा। हिटलर ने एक अनेक यातनाएं यहूदियों को दी उसमें से एक यातना गैस चैम्बर और श्मशान की भी थी। एक कमरे में सभी यहूदियों को डाल कर ज़हरीली गैस छोड़ दी जाती थी, और बड़ी बड़ी भट्टी बना कर लोगों को उसमें ज़िन्दा जला दिया गया जिसे "होलोकॉस्ट" यानी ईश्वर को समर्पित खुला प्रसाद" नाम दिया गया।
आज हिटलर के नक्शे क़दम पर चलते हुवे इस्राइल फिलीस्तीनीयों का नरसंहार कर रही है ज़िन्दा जला रही है पूरी दुनिया खामोश है। कल इसी यहूदी समुदाय के लिए हमदर्दी दिखा कर पूरे विश्व ने हिटलर को ग़लत ठहराया था और फिलिस्तीन से कुछ दिनों की शरण यहूदियों को देने की सिफारिश की थी, आज वही संयुक्त राष्ट्र चुप है मौन धारण किया हुआ है। लाखों लोगों की हत्या उसे नज़र ही नही आरही है। हिटलर ने सही कहा था अगर दुनिया में एक भी यहूदी ज़िन्दा रहेंगे तो वो हमारी संस्कृति और हमारे लोगों को तबाह कर देंगे, यहूदी इंसानियत के दुश्मन है। आज दुनिया देख रही है कौन सही है कौन ग़लत।
क्या पहले भी होलोकॉस्ट की घटना इतिहास में हुई है ??
क़ुरआन और हदीस के आईने में देखे तो ऐसी घटना यहूदियों ने पहले भी अंजाम दी है।
यहूदियों की तारीख़ क़त्ल व ग़ारत और ज़ुल्मो सितम से भरी हुई है। यहाँ तक कि वो मुनादियाने हक़ और अम्बियाए इलाही को भी क़त्ल करने से बाज़ नही आते थे। उन्होंने अपने नाजायज़ फ़ायदे के लिए बनी इस्राइल के उन 43 पैग़म्बरों को भी क़त्ल कर दिया जो हज़रत मूसा अस. की शरीअत की तब्लीग़ करते थे। उसी दिन उन शहीद पैग़म्बरों के डिफाह और अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर (अच्छाई की दावत देना और बुराई से रोकना) करने के लिए 113 ईबादत गुज़ार और सालेहीन अफ़राद ने क़ायम किया उन्हई भी यहूदियों ने क़त्ल कर दिया।
अल्लाह ने सूरह आले इमरान की आयात 21 वा 22 मे उन संग दिल आदमकशो का ज़िक़्र किया है और उनपर तीन तरह के सख्त तरीन अज़ाबो का तज़किरा करते हुवे यूँ इरशाद फ़रमाया है।
जो लोग आयाते इलाही का इनकार करते हैं, और अम्बिया को नाहक़ क़त्ल करते है और उन लोगों को क़त्ल करते हैं जो अदलो इंसाफ का हुक़्म देने वाले हैं। उन्हें दर्दनाक अज़ाब की ख़बर सुना दीजिए, यही वो लोग है जो दुनिया में भी बर्बाद होगए और आख़िरत मे भी कोई इनका मददगार ना होगा (तफ़सीर मजमआउल बयान, जिल्द 1,2 सफा 423)
"असहाबे उखदूद का माजरा"
सूरह बुरुज की आयत 4 से 8 तक मे उन बा ईमान मसीहियों (ईसाई) की अलमनाक शहादत का वाक़या जो ज़हूर ए इस्लाम के क़ब्ल सरज़मीं ए नजरान मे रुनुमा हुआ था।
दुनिया का पहला होलोकॉस्ट जो यहूदियों ने नजरान के 20 हज़ार मसीहियों (ईसाइयों) को आग की भट्टी मे ज़िन्दा जला दिया था।
क़बीला ए हिमयर का आख़िरी ज़ालिम बादशाह "जूनिवास" जो सर ज़मीनें यमन का हुक्मरान था। वह अपने आपको यूसुफ कहता था। वह यहूदी था, उसने अपने क़बीले और यमन के लोगों को मज़हब ए यहूदी को क़ुबूल करने की दावत दी थी। सारा मुल्क ए यमन यहूदी होगया था। लेकिन हिजाज़ और यमन के दरमियान एक सरहदी मंतक़ा (तहसील) नजरान था, उसके 70 देहात थे, यह सारा मुल्क यमन के हिस्सा था। वहां पर ईसाइयों की नर्म दिली और मोहब्बत भारी तब्लीग़ से लोग हज़रत ईसा अस के दीन पर ईमान लाने लगे। सब वहाँ के लोग ईसाई होगए।
जुनुवास कट्टर यहूदी विचार धारा का इंसान था। एक शख़्स नजरान से सनआ आया और सीधा जुनुवास के महल की तरफ गया। उसने कहा मुझे बादशाह से मिलना बहुत ज़रूरी है एक अहम पैग़ाम लाया हूँ। उस शख़्स ने सारा वाक़या बयान कर दिया और कहा अगर इसे नही रोका गया तो पूरा मुल्क़ ए यमन ईसाई होजाएगा। बादशाह कट्टर यहूदी था ये ख़बर सुनते ही हसद की आग में जल उठा और अपने सैनिकों को लेकर यमन पहुँचा वहाँ आरे ईसाइयों को आग जलवा कर ज़िन्दा भट्टी मे डाल कर ज़िन्दा जला दिया, बीस हज़ार से ज़्यादा ईसाइयों को ज़िन्दा जला दिया गया, उनमें एक शख़्स बचने में क़ामयाब होगया था (क़ससुल क़ुरआन,ब्लागी सफा 283-289, सीरा इब्ने हश्शाम जिल्द 1 सफा 35-37)
"असहाबे उखदूद हलाक़ कर दिए गए। आग से भरी हुई खंदकों वाले जिन मे आग भरे बैठे हुवे थे और वो मोमनीन के साथ जो सुलूक़ कर रहे थे, ख़ुद ही उसके गवाह भी है और उन्होंने उनसे सिर्फ इस बात का बदला लिया है कि वो ख़ुदाए अज़ीज़ों हमीद पर ईमान लाए थे। (सूरह बुरुज आयत 4-8)
जब जुनुवास यहूदी ईसाईयों को ज़िन्दा आग की भट्टी मे जला रहा था उसमें से एक ईसाई जिसका नाम "दूस" था सबकी नज़रों से बच कर निकल गया और कैसर ए रोम (रोम का बादशाह) जो कि ईसाई था उसे सारा माजरा बता दिया, कैसर ए रोम ने बहुत अफ़सोस किया और जुनुवास से बदला लेने का आहद किया, उसने कहा मेरी सरहद यमन से दूर है। मैं हब्शा के बादशाह को ख़त लिखता हूँ जो जिसकी सर ज़मीन यमन के क़रीब है और वो मसीही मज़हब पर ईमान रखता है उसका नाम "नज्जाअशी" है। एक अज़ीम जंग हुई नज्जाशी ने 70 हज़ार फौज के साथ यमन पर हमला कर दिया जुनुवास फ़रार हुआ, जब ख़ुद को चारों तरफ से घिरा हुआ महसूस किया तो घोड़े सहित ख़ुद को दरिया मे डूबा लिया। और इस दुनिया में बहुत ज़िल्लत की मौत मरा। (सीरह इब्ने हश्शाम, जिल्द 1 ,सफा 38-39)
ज़ालिम चाहे जितना भी बड़ा हो कितना भी ज़ुल्म कर ले उसकी हुकूमत ज़्यादा दिन नही चलती और एक दिन उसे इस दुनिया से ज़लील होकर जाना पड़ता हैं।
इतना बड़ा लेख लिखने का बस एक मक़सद था ये बताना की कभी भी ख़ुद की ताक़त पर मग़रूर नही होना चाहिए इतिहास दोहराता है और ज़ालिम का नाम ओ निशान मिट जाता है, ज़ुल्म ज़्यादा दिन नही चलता।
और अंत में एक बात, हम (मुसलमान) यहूदी के पैरोकार नही है कि उसने 60 लाख यहूदिया को क़त्ल किया तो वो सही था या मुसलमान उसे हमदर्द समझते है, अगर ऐसा होता तो हिटलर की मूर्ति पूरे इस्लामिक मुल्क़ मे लगती और उसे लोग अपना रोल मॉडल अपना आदर्श समझते, लेकिन ना कल हम ज़ालिम की हिमायत करते थे ना आज करते है। कल भी ज़ालिम का विरोध था आज भी है और आने वाले वक़्त मे रहेगा।
हज़रत अली अस. ने फरमाया, मज़लूम के हिमायती और दोस्त बनो और ज़ालिम के मुक़ाबले खड़े रहो,चाहे वो कितना भी ताक़तवर क्यों ना हो।
आदिल ज़ैदी
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